Monday, January 27, 2020

अंत के बाद


अपनी चीखें रोकने के लिये उन्होनें अपना चेहरा तकिये में धँसा लिया था। लेकिन घुटी-घुटी चीखों के साथ उनका दुबला शरीर रह रह कर काँप रहा था। किसी अदृश्य चाबुक की मार कि तरह। मैं उठ कर उनके पास जाना चाहता था, उनकी पीठ पर हाथ रख कर उन्हें सांत्वना देना चाह्ता था, लेकिन मैं अपनी स्त्ब्धता में, कुछ-कुछ अस्विकार किये जाने के भय के साथ कुर्सी पर बैठा रहा। अस्वीकार वे मुझे पहले भी करती रही थीं लेकिन तब उनको शांत करने की प्रक्रिया में उनका मेरे हाथों को झटकना, मुझे अपने से दूर रहने के लिये कहना, मुझे अपने दुर्भाग्य का कारण बताना, मुझे एक बिमार की प्रतिक्रिया जान पड़ती थी और मैं कर्तव्य समझ कर सब कुछ करता रहता था। लेकिन अभी जब मेरी प्रबल इच्छा हो रही थी कि मैं उठकर उनके पास जाऊँ, उनके काँपते शरीर को अपनी बाहों का सहारा दूं, उन्हें बताउँ कि वो अकेली नहीं हैं, मैं हूँ उनके साथ, मैं जड़वत अपनी जगह पर बैठा हुआ था। अगर उन्होंने मेरे हाथ झटक दिये तो? अगर कहा कि नहीं चाहिये उन्हें मेरी साहनुभूति, कि मैं ही कारण हूँ उनकी इस स्थिति का, तो? आज से पहले वह मेरे लिये मानसिक रूप से बिमार अनर्गल प्रलाप से ज्यादा कुछ नहीं था, पर आज जब वह अनर्गल प्रलाप एक अर्थ ग्रहण कर चुका था, तो मेरी कर्तव्य भावना एक अपराध भावना का रूप ले चुकी थी। एक ऐसा अपराध जो मैंनें किया नहीं था पर उस अपराध का कारण तो जरूर था।
            लेकिन मैं उन्हें इस हाहाकार करती पीड़ा के साथ अकेला नहीं छोड़ सकता था। वो मुझे स्वीकार करें या अस्वीकार करें, मुझे उनको बताना होगा कि मैं उनके साथ हूँ। मुझे उन्हें बतलाना होगा कि भले ही मैं उनकी विवशता हूँ, वो मेरे लिये कोई विवशता नहीं हैं। अब तक अपने जीवन का हर सुख-दु:ख उनका ही आँचल पकड़ कर तो जिया है मैंने। कभी किसी मोड़ पर उन्होंने मुझे अकेला नहीं छोड़ा। आज मेरी बारी थी। मैं उनके पास आकर बैठ गया। वो उसी तरह सिसकती रहीं। मैंनें उनकी काँपती पीठ पर हाथ रखा। उन्होंनें मेरे हाथ को फेंका नहीं। उनका दुःख उनकी घृणा से ज्यादा बड़ा था। मैंनें उन्हें सीधा किया और उनका सिर अपनी छाती से लगा लिया। तिनके कि तलाश करती सी उनकीं बाहें  मेरे गिर्द बन्ध गयीं और वो बिलख उठीं- बंटी, बंटी! और उनकी बाहें बेजान सी मेरे दोनों तरफ गिर गयीं। मैंनें उन्हें और कस कर छाती से लगा लिया। इतनें सालों से जिस यातना को हम अलग-अलग जी रहे थे आज वो एक हो गयी थी। इसके पहले मैंनें कभी उनके लिये इतना स्नेह महसूस नहीं किया था। आज के पहले उन्होने भी मुझे कभी इतना पास आने नहीं दिया था। मेरे आसूँ उनके बालों में गिर रहे थे और वो एक नन्हीं बच्ची की तरह मेरी छाती में दुबकी हुई थी। तमाम उम्र जिन्दगी के बियावान में अकेली भटकती वो स्नेह के स्पर्श को भूल चुकी थीं । लेकिन उनकी प्रतीक्षा खत्म नहीं हुई थीं। उन्होनें मेरे स्पर्श को पहचान लिया था और अब तक की सारी पीड़ा, जो उन्हें शायद वहीं उनकी थाती थी, मुझे सौंप देना चाह रही थीं। मैंनें उन्हें रोने दिया।

      पूरे घर में निस्तबधता छाई थी। आज कोई उनकी चीखें सुन कर दवा और इंजेक्शन ले कर नहीं आया। शायद सब जानते थे, आज इसकी जरूरत नहीं थी। उन्हें पता था, आज यह घटित होने वाला है, और आज उन्हें सिर्फ मेरी जरूरत पड़ेगी और मुझे उनकी।
      उनकी रूलाई थमने लगी थी, वो अब धीरे-धीरे सिसक रही थीं। मैंनें उनका चेहरा सामने किया और हथेली से उनके आसूँ पोछे। वो बहुत निरीह लग रही थीं।
-पानी पियेंगी? मैंनें पूछा। उन्होंनें हलके से ना में सर हिलाया।
-तकिये पे सुला दो।- उन्होंनें स्फुट स्वर कहा। मैंनें किनारे हट कर उनका सिर तकिये पर रख दिया। उन्होंनें पलकें मूँद लीं। मैं उनका चेहरा देखे जा रहा था। उनकीं आँखें बहुत बड़ी थीं जिनके नींचे के काले घेरे उनके गोरे चेहरे पर अलग से दिख रहे थे। पतले निष्प्राण होंठों के किनारे झुक गये थे। इतनी त्रासद जिंदगी के बावजूद उनका सुनहरा रँग अब भी शेष था। इतना सौन्दर्य और ऐसा भाग्य? मैंनें छाती पर रखा उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। वो आँखें खोल कर मुझे देखने लगीं। -मैं जब शादी करुँगा ना तो आपके जैसी गोरी लड़की से करुँगा, ताकि मेरी बेटी हो तो आपके जैसी हो।- मैंनें थोड़ा मुस्कुराते हुये कहा। वो मुझे एकटक देखती रहीं।
-तुम नाराज नहीं हो मुझसे?- उन्होंनें थोड़ा सहमते हुये पूछा।

-आपने ऐसा कुछ नहीं किया है।- मैनें थोड़ा चुप रहकर कहा। उन्होंनें फिर पलकें मुन्द लीं। आँखों के किनारे से आँसू बालों ढुलक गये।
-सो जाइये माँ। आप बहुत थक गयीं हैं।- मैं उनके आँसू पोछता हुआ बोला। वो आँखें खोल कर मुझे देखनें लगीं। क्या था उनकी कातर दृष्टी में? करुणा, दुःख और शायद थोड़ा आश्चर्य सा भी। उन्होंनें मेरा हाथ पकड़ लिया और एक बार फिर फूट पड़ीं।
-बंटी! मेरा बच्चा।- मेरे अन्दर एक तेज रुलाई फूटने लगी। जी चाहा, उनकी छाती पर सिर रखकर जो कुछ अन्दर उमड़ रहा है, मुक्त हो जाऊँ उससे। लेकिन मैं उन्हें खुद को अपराधी नहीं महसूस करने देना चाह्ता था। आज उन्हें मेरी जरुरत थी।
-माँ- मैनें उनके हाथों को अपने हाथों में समेटते हुये कहा – जो कुछ बीत गया, उसे तो मैं नहीं बदल सकता हूँ, लेकिन मैं पूरी कोशिश करुंगा कि आने वाले दिनों को मैं आपके लिये सुखद बना सकूँ। अब मत रोइये। बहुत रो चुकीं आप। मैं अब और आपको रोने नहीं दूंगा। आज से आप मेरी जिम्मेदारी हैं।- मैं उनके आसूँ पोछने लगा।
-बंटी, मुझे माफ कर दो बेटा।- उनकी आवाज एक फुसफुसाहट से ज्यादा नहीं थी।  -ये जानते हुये भी कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, मैं बहुत बार तुम्हारे प्रति अन्याय कर बैठी हूँ। मैं... ।- उनकी आवाज टूट गयी।
-मैं अब समझ सकता हूँ माँ।- मैंनें उनके हाथों को सहलाते हुये कहा –तब सचमुच बुरा लगता था लेकिन अब मैं जानता हूँ उसमें आपका कोई दोष नहीं था।” -आखिर सभी मुसीबतों का कारण तो मैं ही था- मैं आगे कहना चाहता था लेकिन मैंनें कहा नहीं। उन्होंनें आँखें बंद कर लीं। हम चुप हो गये। मैं उनके हाथों को सहलाता रहा। उनकी उखड़ी साँसें धीरे-धीरे सामान्य हो रही थीं।
-माँ, थोड़ा ग्लूकोज पानी लाऊँ?- मैंनें उनके सफेद चेहरे को देखते हुये पूछा। उन्होंनें धीरे-धीरे आँखें खोलीं, उन्हें जैसे पलकों को खोलने में भी मेहनत लग रही थी। उनकी थकी हुई दृष्टि मेरे चेहरे पर रूकी रही।
-तुमने मुझे समझा बंटी। आज मेरा तुम्हे जन्म  देना सार्थक हो गया। पहली बार महसूस हो रहा है कि तुम सिर्फ इस परिवार के वंश के निमित्त मात्र नहीं, मेरे भी अंश हो।
- वो हाँफने लगीं। उनके वाक्य का अंतिम अंश मेरे कानों से गुजर कर आहिस्ता से मेरी छाती में अटक गया लेकिन उसकी पीड़ा उनकी तेज सासों के नीचे दब गयी। मैं ह्ल्के-ह्ल्के उनका हाथ थपथपा कर उन्हें शांत करने की कोशिश करने लगा।
-अब मत बोलिये। आपकी तबीयत बिगड़ रही है।- मैंनें उनकी भवों को सहलाते हुये कहा। - मैं आपको दवा देता हूँ। आप सो जाइये।- मैंनें उठना चाहा लेकिन उन्होंनें मेरा हाथ पकड़े रखा। हम थोड़ी देर खामोशी में बैठे रहे।
-तुम ठीक हो ना?- उन्होंनें घीरे से पूछा।
-हाँ, मैं ठीक हूँ।- मैं और क्या कहता। उन्होंनें एक लम्बी साँस ली।
-जाओ, सो जाओ। कल का दिन शायद तुम्हारे लिये कठिन होगा।- उन्होंनें कहा और हाथ हटा लिए।
-आप ठीक हैं?- इस बार मैंनें पूछा।
-मेरे लिये तो सब कुछ पहले ही ठीक हो गया था बेटा। जो कुछ बचा हुआ था आज वो तुम्हें सौंप कर मैं भार मुक्त हो गयी। बस दुःख इस बात का है कि अब सारा भार तुम्हारे कन्धों पर आ गया।- वो फिर सुबकने लगीं।
 -मैं बहुत मजबूत बन चुका हूँ माँ।  मैं सम्भाल लूँगा। – मैं फिर उनके हाथ सहलाने लगा। -आप दवा खा लीजिये। अगर आप नहीं सोयेंगी तो आपकी तबीयत बहुत बिगड़ जायेगी।- मैंनें उनके पलंग के साइड टेबल पर से दवा की शीशी उठाने लगा लेकिन वहाँ पर पानी नहीं था। -मैं पानी लेकर आता हूँ।- मैंनें कहा और खड़ा हो गया। कमरे से बाहर जाते हुये मैं अपनी पीठ पर उनकी आँखें महसूस कर रहा था। मैं चुपचाप रसोई में चला आया।
      हमेशा की तरह रसोई में पीले रंग का नाइट बल्ब जल रहा था।  इसके पहले न जाने मैं कितनी बार मैं इस कमरे में आया था लेकिन आज यह पीले रंग की रोशनी न जाने क्यों मुझे रात में चौराहों पर जलने वाली ट्रैफिक लाइट की याद दिला रही थी – चुप, सन्नाटे और निर्जनता को इंगित करती हुई सी। मेरे भीतर ढ़ेर सारी थकान उतर आयी। मैं फ्रिज से टेक लगा कर खड़ा हो गया। -‘कल का दिन तुम्हारे लिये शायद कठिन होगा’- उनकी धीमी आवाज रसोई की शांति में घुल गयी। फ्रिज की धीमी घरघराहट मेरे अन्दर समाने लगी थी । मैं हट कर पानी निकालने लगा।
      जब मैं उनके कमरे में आया तो वो सो चुकीं थीं। उन्हें आज नींद की दवा की जरुरत नहीं पड़ी थी। मैं पलंग के किनारे बैठ गया। उनका पीला चेहरा थका हुआ पर शांत था। इसके पहले मैंनें जब भी उन्हें सोते हुये देखा था, उनके चेहरे पर तनाव की एक छाया हमेशा मौजूद देखी थी लेकिन आज.....! मेरे सीने में एक लम्बी साँस उमड़ आयी। मैंनें उठ कर पैरों के पास पड़ी चादर उन्हें उढ़ा दी और कमरे से निकल आया।
      पूरे घर में चुप्पी छाई हुई थी। हमेशा की तरह दादा-दादी के कमरे से टीवी चलने की आवाज भी नहीं आ रही थी, जबकि अभी रात के ग्यारह ही बजे थे और दादी को देर रात तक टीवी देखने की आदत थी। पापा की स्टडी से टेबल लैम्प का  हल्का सा प्रकाश बाहर आ रहा था। मैं थोड़ी देर उसे घूरता रहा। -‘क्या है यह? दुस्साहस या फिर निर्लज्जता?’- अचानक मैं चौंक गया। अपने दिमाग में पापा के लिये ऐसे शब्दों के आने पर चौंक गया। मैं जल्दी-जल्दी अपने कमरे मैं चला आया।
कमरे में अंधेरा था। खिड़की से चांदनी अन्दर आ रही थी। मैं खिड़की से लग कर खड़ा हो गया। निस्तब्धता अच्छी लग रही थी। -‘अब?’- मैंनें अपनी परछाई से पूछा। -‘कल का दिन शायद तुम्हारे लिये कठिन होगा’- परछाईं ने माँ के स्वर में कहा। मैं मुड़ कर खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर भी वही सन्नाटा था जो घर के अन्दर था। हवा की भी सरसराहट नहीं थी। पेड़-पौधों के पत्ते तक बिना हिले-डुले, चुप-चाप खड़े थे, जैसे किसी आशंका ने उन्हें स्तब्ध कर दिया हो। -लेकिन किस आशंका ने? क्या मैं कल इस घर को छोड़ कर जाने वाला हूँ? इन अजनबी बन गये रिश्तों से दूर? कहाँ? सत्येन्द्र पाठक के पास? –मैं चौंक गया। मन में आये इस उत्तर ने मुझे वह सब कुछ याद दिला दिया जिसे मैं याद करना नहीं चाह रहा था। कितना खुश हुआ था मैं यह जान कर कि मेरा बास मेरे पिता का स्टुडेंट रह चुका है। वो मेरे सरनेम पर चौंके थे।
-सृजन श्रीकांत धर? तुम्हारे पिताजी का नाम श्रीकांत धर है? प्रोफेसर श्रीकांत धर? जो युनिवर्सिटी

में इंग्लिश के प्रोफेसर हैं?- उनकी आवाज में घोर आश्चर्य था।
-जी सर! आप जानते हैं उन्हें?- मैं उनके आश्चर्य पर थोड़ा असहज महसूस कर रहा था। ‘भला इसमें इतने आश्चर्य की क्या बात है?- उन्होंने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया। बस विस्फारित आँखों से मुझे घूरते रहे थे। उनके चेहरे पर विचित्र सा भाव था, आश्चर्य, अविश्वाश, कुछ-कुछ सदमे जैसा। मैं उनकी घूरती दृष्टि से घबराने लगा था। ‘कुछ गलत हो गया क्या?’ मैं कुछ बोलने के लिये सोच ही रहा था कि वो बोले।
-“तुम प्रोफेसर धर के बेटे हो?- उनकी आवाज करीब-करीब फुसफुसाहट जैसी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे वो पूछ नहीं रहे थे बल्कि अपने आप को यकीन दिला रहे थे।
-जी सर! आप जानते हैं उन्हें? उनकी प्रतिक्रिया पर अपने आश्चर्य से उबरते हुये मुझे अपना प्रश्न दुहराने के अलावा कुछ नहीं सूझा था। उन्होंनें एक छोटी सी गहरी साँस ली थी और एक पल की चुप्पी के बाद बोले थे।
-“बहुत अच्छी तरह- उनका चेहरा सहज हो चुका था। - एम.ए. में मैं उनका स्टुडेंट था।- उन्होंनें कुर्सी की पुश्त से टेक लगाते हुये कहा था।
-अच्छा!- मुझे आश्चर्य मिश्रित खुशी हुयी थी।
-कैसे हैं वो?- उन्होंनें ट्रे में पड़े हुये पेन को उठाते हुये पूछा था।
-जी अच्छे हैं।- मैंनें सहजता से कहा था।
-अभी तो सर्विस में होंगे?"-
-जी हाँ अभी तो हैं।-
-और घर के सब लोग?- वो पेन को दोनों हाथों से घुमा रहे थे।
-जी सभी ठीक हैं।
-और तुम्हारी माताजी?- उन्होंनें पेन को देखते हुये थोड़ा अटकते हुये पूछा था।

-थोड़ी अस्वस्थ तो रहती हैं, पर वैसे ठीक हैं।- मुझे उनका अटकना एक स्वाभाविक संकोच लगा था। उन्होंनें आँखें उठा कर मुझे देखा था और उसी तरह पेन घुमाने लगे थे। बात-चीत का क्रम टूट गया था और एक चुप्पी छा गयी थी। उन्होंनें पेन को घुमाना बंद कर दिया थ और पेन से दूर देख रहे थे। कुछ खोये हुये से। फिर उन्होंने एक छोटी सी साँस ली थी।
-और तुम्हारे भाई-बहन? वे लोग क्या कर रहे हैं?- उन्होंनें पेन को वापस ट्रे में रखते हुये पूछा था।
-मेरे और कोई भाई-बहन नहीं हैं सर। मैं एकलौता हूँ।” -मैंने थोड़ा हँस कर अंतिम वाक्य जोड़ा था। उन्होंनें एक क्षण मुझे पूरी दृष्टि से देखा था। उनकी आँखों का भाव बहुत कोमल था। शायद सहानुभूतिवश।

-लकी!- उन्होंनें मुस्कुराते हुए कहा था।
-कान्ट से सर।- मेरे मुँह से निकला था और मैं खुद ही चौंक गया था। मुझे अपने आप को किसी से बाँटने की आदत नहीं है, फिर यह कैसे हुआ था? शायद उनकी आँखों की कोमलता का असर था।

-क्यों?- उन्होंनें मुझे गौर से देखते हुये पूछा था।
-वो एक प्रोफेसर का घर है सर, और वहाँ सिर्फ किताबें ही किताबें हैं, और किताबें सिर्फ बोल सकती हैं सर, सुन नहीं सकतीं।- अपनी वह भावुक अभिव्यक्ति मुझे आज भी चकित कर रही थी। वो उसी तरह मुझे देखते रहे थे, फिर उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई थी, जैसे मेरी बात पे सहमती व्यक्त कर रहे हों। फिर उन्होंनें कुर्सी से उठते हुये कहा था –चलो तुम्हें तुम्हारी सीट तक पहुँचा दूँ।- मैं इस ‘वार्म मेलकम’ पर चकित होता हुआ उनके पीछे चल पड़ा था।
      एक बड़े से हाल में जहाँ और भी पी.ओ. लोग छोटे-छोटे खुले चेम्बरों में बैठे थे, वो मुझे एक खाली कोने में ले गये थे। उन्हें आता देख आस-पास के लोग खड़े हो गये थे। गुड मार्निंग सर की आवाजें आ रही थीं। -ये आपके नये कुलीग, सृजन धर- उन्होंनें हल्की सी मुस्कान के साथ मेरा परिचय मेरे सहकर्मियों से करवाया और मेरे सबों से हाथ मिलाने तक खड़े रहे थे, फिर –ठीक है सृजन, तुम अपना काम देखो। कोई जरुरत हो तो मैं अपने चेम्बर में हूँ।- कह कर मुड़ गये थे। उनका मुझे नाम से सम्बोधित करना और सार्वजनिक रूप से ‘तुम’ कहने पर मेरा ही नहीं, मेरे सहकर्मियों का भी ध्यान गया था। किसी ने पूछ ही लिया था –
-सर आपको पर्सनली जानते हैं क्या?-
-हाँ, वो मेरे पिता के स्टुडेंट थे।- निश्चित रूप से मुझे अपने थोड़ा विशेष होने का सुख महसूस हुआ था।

-फिर तो आपकी चाँदी है।- जैसे कमेंट के साथ, दो-चार हल्की-फुल्की बातों के बाद मैं अपना काम देखने लगा था।

आफिस का समय समाप्त होने के पर मैं थोड़ी उहापोह में पड़ गया था। ‘एकदम से उठ कर चला जाऊँ य जाने से पहले पाठक सर से मिल लेना चाहिये? आज मिल लेता हूँ, कल से सब कुछ सामान्य ढ़ंग से रहेगा’- सोच कर मैं उनके चेम्बर में चला आया। मिस्टर पाठक फाइलों में व्यस्त थे। मेरे –आ सकता हूँ सर?- पूछ्ने पर उन्होंनें मेरी ओर देखा और सर हिलाकर मुझे आने का इशारा किया था। शायद वे मेरे आने को समझ रहे थे। मेरे कुछ बोलने से पहले ही उन्होंनें पूछा था- निकल रहे हो?-
-जी सर!
-सब कुछ ठीक रहा?
-जी सर।
-किसी तरह की कोई असुविधा तो नहीं हुई?
-नहीं सर, थोड़ी बहुत हुई भी तो इंचार्ज साहब ने मदद कर दी।
-ठीक! ठीक है फिर, निकलो।
-जी सर। प्रणाम।- मैं मुड़ने लगा उन्होंनें आवाज दी थी।
-सृजन!
-जी सर?
-अपने पापा को मेरा प्रणाम कहना।- उन्होंनें थोड़ा रुक कर कहा था।
-जी सर, जरूर।-  मैं उनके इस सम्मान प्रदर्शन पर खुद को आभारी महसूस कर रहा था।
लौटते हुए मैं यह सोच कर खुश था कि घर में जब सबको बताऊँगा कि मेरे बास पापा के स्टुडेंट थे, तो सबको अच्छा लगेगा। पापा से मेरी विशेष बातचीत तो नहीं होती थी लेकिन इतना तो मैं बोल ही सकता था कि -पापा मेरे बॉस आपके स्टुडेंट थे। उन्होंनें आपको प्रणाम कहा है- तो उन्हें जरूर ही अच्छा लगेगा।
दरवाजा माँ ने ही खोला था। -कैसा रहा पहला दिन?- उन्होंनें पूछा था।
-सब ठीक रहा माँ। मेरे बॉस तो पापा के स्टुडेंट निकले, सो जो थोड़ी बहुत झिझक थी, वो भी दूर हो गयी।- मैंनें खुशी-खुशी कहा था।
-यह तो बहुत अच्छा हुआ। उम्मीद की जा सकती है कि वो आगे भी तुम्हारी मदद करेंगे।- माँ ने सहजता से कहा था और मुझे फ्रेश’ होने के लिये कह कर रसोई में चली गयीं थीं।

नाश्ते के टेबल पर हमेशा की तरह दादा-दादी, पापा-माँ सभी थे। पापा ने ही पूछा था -कैसा रहा आफिस?
 -ठीक ही रहा पापा। सारे लोग को-औपरेटिव ही मिले। मेरे बॉस तो आपके स्टुडेंट ही निकले। उन्होंनें आपको प्रणाम भी कहा है।- मैंनें उत्साह से कहा था।
-अच्छा! क्या नाम है?- पापा ने आदत के मुताबिक चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन लाये बिना पूछा था।

-मिस्टर सत्येन्द्र पाठक।- मैंनें कुछ अच्छा सुनने के इंतजार में उत्सुकता से कहा था। नाश्ते की मेज़ पर सन्नाटा छा गया था। सब अचानक चुप हो गये थे। उस समय मेरा ध्यान नहीं गया था, अब याद आ रहा है कि दादा-दादी दोनों ने- जो मेरी बात सुनते हुए मेरी तरफ देख रहे थे- झटके से माँ की तरफ देखा था फिर प्लेट पर झुक गये थे। चौंक पापा भी गये थे लेकिन फिर उन्होंनें सँभल कर शांति से कहा था -अच्छा वो?
-आपको याद हैं वो?- अचानक की इस शांति से मुझे थोड़ी घबराहट महसूस होने लगी थी।

-हाँ याद है। एम.ए. में था वह। कभी-कभी कुछ पूछ्ने के लिये घर पर भी आता था।- पापा सहजता से बोल रहे थे। लेकिन उसके बाद फिर कोई और बात नहीं हुई और सब चुपचाप डिनर करते रहे थे। उठते समय मैंनें देखा था माँ का प्लेट वैसा ही पड़ा था। वो चुपचाप प्लेट को देखे जा रही थीं। कुर्सी खिसकाने की आवाज पर वे चौकीं थीं और मुझे अपनी ओर देखता हुआ देख कर नाश्ते  का एक टुकड़ा मुँह में डाल लिया था।
      उस रात को एक अर्से बाद माँ को फिर दौरा पड़ा था। पिछले कुछ सालों से उन्हें दौरे पड़ने बन्द हो गये थे, लेकिन उस रात लगभग आठ सालों बाद उन्हें फिर दौरा पड़ा था। हालाँकि इस बार वे कपड़े नहीं फाड़ रही थीं और ना ही भागने की कोशिश कर रही थीं। बस उनके दाँत भीच जा रहे थे और होश में आने पर चिल्ला के रो रही थीं। पापा किसी तरह उन्हें दवा देने में सफल हुये थे। उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया गया था।
यह सब कुछ मैं होश सम्भालने के साथ देखता आया था। मुझे इस सब का अभ्यास हो चुका था। हालाँकि ये जानने के बाद कि ये दौरे हिस्टिरिया के थे, मुझे आश्चर्य जरूर हुआ था, पर मैंनें इसके विषय में कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी थी। लेकिन उस रात के उनके दौरे से पता नहीं क्यों मुझे डर सा लग गया था। कोई शंका सर उपर उठा रही थी मेरे अन्दर जिसे मैं सोचना नहीं चाह रहा था।
दूसरी सुबह मेरे दफ्तर जाने तक माँ सो ही रही थीं। मेरे लौटने पर हमेशा की तरह दरवाजा उन्होंनें ही खोला था लेकिन उन्होंनें आफिस के विषय में कुछ नहीं पूछा था। बस मौसेरी बहन की चिठ्ठी आने की बात कह कर चली गयी थीं। उस शाम पापा देर से लौटे थे और रात का खाना भी उन्होंनें अपनी स्ट्डी में ही मंगवा लिया था। ऐसा वो कभी-कभी किया करते थे जब वे कुछ लिख रहे होते थे, लेकिन मेरा दिल कह रहा था कि आज बात कुछ दूसरी थी।
       दो-तीन दिन के बाद सब कुछ पहले की तरह ही हो गया था। मैंनें आफिस की कोई चर्चा नहीं की थी। मेरे अन्दर कोई कह रहा था यह प्रसंग उचित नहीं है। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी बन्द दरवाजे के आगे खड़ा हूँ। थोड़ी सी मेहनत से मैं इस दरवाजे को खोल सकता था लेकिन मेरी चेतना कह रही थी कि इस दरवाजे के पार जो कुछ भी था वह अच्छा नहीं था। इस दौरान में मिस्टर पाठक से भी एक बार ही मिला था। उन्होंनें ही मुझसे पूछा था कि क्या मैंनें पापा को उनके बारे में बताया था। मेरे हाँ कहने पर उन्होंनें जानना चाहा कि उन्होंनें क्या कहा था। मैंनें सहज ढ़ंग से वह बता दिया जो पापा ने कहा था। सुनकर उन्होंनें भी सहज ढ़ंग से ही कहा था –चलो, मैं उनको याद तो हूँ।- लेकिन उनकी आँखें बेहद उत्सुक थीं जो मुझे अच्छा नहीं लगा था। बास के रूप में पापा का स्टुडेंट मिलने की खुशी तिरोहित हो चुकी थी। मैं उनसे बचने लगा था। लेकिन जिस दरवाजे को मैं खोलने से बचना चाह रहा था आखिर वो खुल ही गया था।

आज आफिस में मुझे मिस्टर पाठक के चेम्बर में जाना पड़ा था। वहाँ एक महिला ‘कस्टमर’ बैठी हुई थीं जो शायद उनकी पुरानी परिचित थीं। मुझे बैठने का संकेत कर वे उनसे लोन के विषय में बातें करते रहे थे। बीच-बीच में किसी बात की हामी के लिये या अतिरिक्त समर्थन के लिये मेरी ओर भी देख लेते थे। मैं भी कुछ-कुछ बोल रहा था। बात समाप्त होने पर मैं उनसे अपने काम की बातें कर ही रहा था जब उस महिला ने अचानक कहा -आपका बेटा है क्या पाठक जी?- इस बेतुके और आश्चर्य जनक प्रश्न पर मैं और मिस्टर पाठक दोनों ही चौंक गये थे। मैं उस महिला को आश्चर्य से देखने लगा था लेकिन पाठक जी का चेहरा कुछ हतप्रभ सा हो गया था।
-अरे? नहीं, भला ये कैसे...?- उन्होंनें अचकचाते हुये कहा। -.. पी.ओ. हैं हमारे यहाँ। सृजन धर।
- उन्होंनें आगे जोड़ा।
-मुझे लगा जैसे आपका ही बेटा हो। आँख, नाक, माथा, बाल सब आपके ही जैसा है।- महिला अपनी बात पर अड़ी रही।
-अच्छा?- मिस्टर पाठक ने एक नज़र मुझ पर डालते हुए हल्की हँसी के साथ कहा- हमारा तो ध्यान ही नहीं गया इस पर। ये भी एक संयोग ही है, अगर ऐसा है तो। होता है कभी-कभी।- वो थोड़ा तेजी से बोल रहे थे। फिर उस महिला को आगे बोलने का अवसर दिये बिना उन्होंनें मुझसे कहा- ठीक है सृजन, मैं सेन साहब को बोल दूँगा, वो प्रोग्राम बनाने में तुम्हारी मदद कर देंगे। ठीक ना?- और वो उस महिला की तरफ मुड़ गये –हाँ मिसेज़ सिंह, तो क्या फाइनल लिया आपने?-

मैं बिना कुछ बोले चुपचाप उठ आया था। कमरे से निकलते हुये मुझे पता था उन्होंनें उस महिला की नज़र बचा कर मेरी पीठ को देखा था। अपनी सीट पर लौट कर मैं कम्प्यूटर की स्क्रीन में अपने उपर उनकी उस त्वरित दृष्टि को महसूस करता रहा। - ‘क्या सचमुच मेरी आँखें, मेरे बाल, मेरा माथा मिलते हैं उनसे? मेरा जी चाह रहा था मैं पूछ लूँ किसी अगल-बगल वाले से, क्या सचमुच है ऐसा? लेकिन शायद पूछ्ने की जरूरत नहीं थी मैं अपनी आँखों में उनकी आँखें देख सकता था। वही बड़ी-बड़ी, उभरी हुई, भूरी आँखें। सिर्फ बरौनियों का अंतर था। मेरी बरौनियाँ माँ की तरह घनी और लम्बी थीं। मेरे बाल उनके बालों की तरह ही छल्लेदार थे, बस उनके बाल आगे से थोड़ा उड़ गये थे। ‘क्या है ये सब? सचमुच कोई संयोग था। मुझे मेरा कलेजा डूबता हुआ सा महसूस हो रहा था। मुझे याद नहीं, साँय-साँय करते हुये माथे के साथ मैंनें बाकि का काम कैसे निबटाया था। कैसे य़ंत्रवत मोटर साइकिल चला कर घर पहुँचा था यह भी मुझे याद नहीं। दरवाजे पर माँ ने कुछ पूछा था जिसके उत्तर में –‘मेरा सर दर्द कर रहा है’- कह कर मैं सीधे अपने कमरे में चला आया था। कपड़े बदलते समय अलमारी में लगे शीशे से मिस्टर पाठक की आँखें मुझे घूरती रहीं थीं।
जिस वक्त माँ ने मुझे नाश्ते के लिये कहने आई थीं, मैं सर पकड़े बिस्तर पे बैठा हुआ था। मुझे ऐसे बैठा हुआ देख कर वो थोड़ा घबरा गयीं थीं।
-बंटी, बहुत दर्द है क्या बेटा?- उन्होंनें मेरे पास बैठ कर मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुये पूछा था। मेरे अन्दर उनके हाथ को झटक देने की तीव्र इच्छा हुई थी। मेरा कन्धा जैसे अपने आप सिकुड़ गया था। वो शायद इसे समझ गयीं थीं। उन्होंने  हाथ हटा लिया था। -क्या बात है बंटी?- उन्होंने थोड़ा ठहर कर पूछा था।
-कुछ नहीं, बस सर दुख रहा है।- मैंनें बिना उनकी ओर देखे हुए कहा था।
-दवाई दूँ?- उन्होंने फिर एक पल की चुप्पी के बाद कहा था।
-नहीं किसी दवा की जरूरत नहीं है। मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूँ बस।- मैंने चाहा नहीं था लेकिन मेरी आवाज में रुखाई थी। उन्होंने फिर कुछ नहीं कहा था। उठते हुए मैंने उनकी छोटी सी गहरी साँस सुनी थी। मैं अपने अन्दर उमड़ती घृणा को अब स्प्ष्ट महसूस कर रहा था। ‘तो उन्हें अनुमान हो चुका है कि मुझे सच का पता लग गया है।मेरे अन्दर चीखें उमड़ने लगीं थीं। ‘कैसे जा सकती हैं ये मुझे इस तरह छोड़ कर?’ मेरी इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर उन्हें पकड़ लूँ और झकझोर कर पुछूँ- ‘आप कैसे इतना निश्चिंत हो सकती हैं। मुझसे मेरा वजूद छीन कर? मेरे जीवन की इतनी बड़ी उलझन आपके लिए सिर्फ एक साँस भर है?- लेकिन मैं पलंग पर बैठा सिर्फ जलती आँखों से उनकी पीठ घूरता रहा था। तो यह है मेरा सच! मैंने सोचा था कि माँ चूँकि पापा से बारह-तेरह साल छोटी हैं इसलिये वे घर में आने वाले पापा के स्टुडेंट सत्येंद्र पाठक से जुड़ गयी होंगी। घर वालों ने इसे जानने के बाद मिस्टर पाठक का आना बन्द करवा दिया होगा जिसके कारण माँ को हिस्टिरिया के दौरे पड़ने लगे होंगे। लेकिन यह पूरा सच नहीं था। पूरा सच यह था कि माँ का सत्येंद्र पाठक से जुड़ाव का परिणाम मेरे रूप में सामने आया था।
      ‘तो यही कारण है कि आजतक मैं अपने परिवार वालों व्यवहार में अपने लिये एक तटस्थता महसूस करता रहा। किसी ने भी मुझे वह प्यार नहीं दिया जो एक परिवार में एक बेटे को, एक पोते को मिलता है। तो इसलिये पापा हमेशा स्टडी में ही सोते हैं, क्योंकि उन्होंने माँ को त्याग दिया है। लेकिन फिर भी महान हैं पापा, महान हैं दादा-दादी, जिन्होंने माँ को स्वीकार किया हुआ है। मुझे स्वीकार किया हुआ है। हो सकता है कि उन्होंने ये सब अपनी सामजिक प्रतिष्ठा के लिये किया हो, लेकिन ये लोग चाहते तो माँ से तलाक दिलवा कर पापा की दूसरी शादी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने सिर्फ समाज में अपनी किरकिरी से बचने से लिये जहर का घूँट पी लिया। मुझे माँ से पूछना होगा, क्यों किया उन्होंने ऐसा? क्या खराबी थी पापा में? सिवा इसके कि वे उम्र में माँ से थोड़े ज्यादा बड़े थे। इतने सुदर्शन हैं पापा। इतने बड़े स्कॉलर! इतना सुखी सम्पन्न, एक आइ.पी.एस. अफसर का घर! क्या है माँ के परिवार में? पापा नहीं रहते तो मौसी लोगों का ब्याह नहीं होता। हाँ ठीक है, माँ बहुत रूपवती हैं। उनके रूप पर ही मुग्ध हो कर पापा ने उम्र का इतना फासला होते हुए भी उनसे शादी की थी, तो यह कोई ऐसा बड़ा गुनाह तो नहीं था? मुझे माँ से पूछना ही होगा। ऐसा क्यों किया उन्होंने?
      मैं उत्तेजना में उठ कर खड़ा हो गया था लेकिन फिर खयाल आया था, यह सब कुछ माँ से सबके सामने नहीं पूछा जा सकता। मैं वापस बैठ गया। मेरा सर अब सचमुच दर्द करने लगा था। मैं अपने भीतर बेहद खालीपन महसूस कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे सीने में कुछ है ही नहीं। मैंने बिस्तर पर लेट कर तकिया छाती में दबा लिया था।
माँ रात के खाने के लिये बुलाने आई थीं। मुझे उनके आने का पता भी नहीं चला था। शायद मेरी आँख लग गयी थी। उनके पुकारने पर में चौंक कर उठा था। वे मेरे सिरहाने खड़ी थीं। उन्हें देखते लके साथ शांत पड़ गयी वितृष्णा की लहर पूरी तीव्रता के साथ मेरे दिमाग पर छा गयी थी।
-क्या है?- मेरे मुँह से निकला था। उन्होंने तुरंत कुछ नहीं कहा था, और मुझे ख्याल आया था कि मैं कभी ऐसे नहीं बोलता था। उनके पुकारने पर मुझे ‘हाँ माँ’ बोलने की आदत थी लेकिन आज तो सब कुछ बदल गया था।
-कैसा है सर दर्द?- उन्होंने पूछा था।
-ठीक है।- मैं अपने स्वर की रूखाई को सुन सकता था। वे कुछ देर देखती रहीं थी। उनका चेहरा बेहद कोमल था शायद थोड़ा करूण भी।
-खाना खाओगे?- उन्होंने धीरे से पूछा था।
-नहीं- मेरे मुँह से सपाट ढंग से निकला था। लेकिन फिर मैंने आगे से जोड़ दिया था -खाने की इच्छा नहीं है।- वे फिर मुझे देखती रही थीं। मुझे उनका ऐसे देखना अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने गरदन मोड़ ली थी। मैंने देखा था उनका हाथ एक पल के लिए उठा था जैसे मेरे सर पर अपना हाथ रखना चाहतीं हों लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। बस मुझे देखती रही थीं। फिर उन्होंने कहा था
-“थोड़ा सा खा लो बंटी। तुमने शाम को नाश्ता भी नहीं किया था। ऐसे तो तबीयत खराब हो जायेगी बेटा।- पता नहीं उनकी आवाज में क्या था कि मैं मना नहीं कर पाया था।
-ठीक है चलिये, मैं आ रहा हूँ।- कह कर मैं अपनी आँखों पर बाँह रख ली थी। माँ फिर एक छोटी सी साँस के साथ चली गई थीं।
      खाने की मेज पर दादी ने सर दर्द के विषय में पूछा था, और मेरे –‘अब ठीक है’- के उत्तर के साथ मेज पर छाई खामोशी खाना खाने के बाद भी नहीं टूटी थी। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे सभी समझ रहे थे कि मैं सब जान गया हूँ। मुझे अपना आपा बेहद छोटा लग रहा था। किस अधिकार से बैठा हूँ मैं यहाँ? क्यों किया माँ ने ऐसा? एक-एक निवाला मेरे कंठ में अटक रहा था। -अब नहीं खाया जा रहा है।- कह कर मैं उठ गया था। किसी ने कुछ नहीं पूछा था। माँ भी चुपचाप मुझे जाता देखती रही थीं।
      जिस समय मैं उनके कमरे में पहुँचा था, वे खिड़कियों के पर्दे मिला रही थीं। उन्होंने मुड़ कर मुझे देखा था लेकिन कहा कुछ नहीं बस आ कर पलंग पर बैठ गयी थीं। मैं खिड़की के पास पड़ी उनकी ‘रॉकिंग चेयर’ खींच कर उनके सामने बैठ गया था। हमदोनों कुछ देर बिना बोले एक दूसरे को देखते रहे थे। मैं घर में व्याप्त चुप्पी को सुन रहा था। दिवारों के खुले हुये कानों को देख रहा था। लेकिन अब छुपाने के लिये क्या था?
-क्यों किया आपने ऐसा?- मैंनें अपनी चिल्लाने की इच्छा से लड़ते हुए पूछा था।
-यह तुम्हें अपने पिता से पूछना चाहिये।- उनकी आवाज चिढ़ा देने वाली हद तक शांत थी।
-क्या पुछूँ मैं अपने पिता से? अपराध आपका है, पूछूँ मैं उनसे?- मेरी आवाज फुँफकार से कम नहीं थी।
-क्या?- उनकी आवाज से स्थिरता का गायब हो जाना मुझे सुकून दे रहा था। -मेरा अपराध?- उनकी भवें जुड़ गयी थीं।
-हाँ आपका अपराध।- मेरे अन्दर का गुबार फूट पड़ा था। -आपने धोखा दिया पापा को। क्या अपराध था पापा का? सिवा इसके की वो आपसे उम्र में बहुत बड़े थे। वो सत्येंद्र पाठक? किस चीज में बराबरी करता है मेरे पापा की? रूप में ना गुण में, यश में ना प्रतिष्ठा में? किस चीज में?- मेरी आवाज ऊँची हो गयी थी -फिर भी आपने पापा की जगह उसे चुना? और अगर चुना भी तो क्यों नहीं चली गयी थीं उसी के साथ? आज मेरी जिन्दगी मेरे खुद के लिये एक गाली तो नहीं बनती? एक बार भी आपने नहीं सोचा कि आपका यह गुनाह तमाम उम्र मेरे शरीर में बजबजाता रहेगा? ये तो इन लोगों की महानता है कि इन्होंने मुझे..।- उन्होंने मुझे अपना वाक्य पूरा करने भी नहीं दिया था।

-महानता?- उन्होंने मेरा शब्द दुहराया था। उनकी ललाट पर एक नस बुरी तरह फड़कने लगी थी और आँखें चढ़ गयी थीं। लेकिन आज मुझे उनके दौरे की परवाह नहीं थी।
-महानता नहीं तो और क्या?- मैं क्रूर हो चुका था। -त्याग सकते थे ये लोग आपको? दूसरी शादी कर सकते थे पापा। कमी भी क्या थी उनमें? तैंतीस-चौंतीस साल की उम्र...।- मैं वाक्य पूरा नहीं कर पाया था। वो हँसने लगी थीं।
-कमी? दूसरी शादी?- उनकी आँखों में उनका पागलपन झलकने लगा था। मैं थोड़ा सहम गया था। -कमी जानना चाहते हो तुम अपने पिता की? अपने महान पिता की? अपने इस यशस्वी, गुणवान, रूपवान पिता की?- वे जोर-जोर से हँसने लगीं थीं। मैंने घबरा कर दरवाजे की तरफ देखा था। वो और जोर-जोर से हँसने लगी थीं। -मत घबराओ बंटी, आज कोई नहीं आयेगा। इन लोगों में यह साहस नहीं कि ये तुम्हें इस महान पिता की कमी बता सकें। उस कमी को, जिसे इन्होंने तुमसे छिपा कर रखा है। उस कमी का वह सच, जो तुम्हारे जन्म का कारण है। हिजड़ा है तुम्हारा यह महान बाप बंटी, हिजड़ा।- वो बुरी तरह हाँफने लगी थीं और मैं स्तब्ध था।
-माँ?- मैं बस इरना ही बोल सका था।
-तुमने पूछा कि मैं क्यों नहीं चली गयी उसके साथ। मैंने चाहा था बंटी, बहुत चाहा था उसके साथ चले जाना। बहुत रोयी थी, बहुत छटपटाई थी। लेकिन इनलोगों ने मुझे जाने नहीं दिया। जानते हो क्यों? क्योंकि इन्हें तुम चाहिये थे। और सुनोगे बंटी मेरे अपराध की कहानी? क्यों किया मैंने ऐसा?- और वो फूट-फूट कर रोने लगी थीं। कमरे की हवा थमी हुई थी और मेरा दम घुटने लगा था। बड़ी तेज इच्छा हो रही थी कि यहाँ से भाग जाऊँ लेकिन मेरे सच का भयानक मार मुझे हिलने भी नहीं दे रही थी। मैं सुन्न सा बैठा उन्हें रोता हुआ देखता रहा था।
-मैं अठ्ठारह साल की थी बंटी, जब मेरा ब्याह हुआ था।- वो सिसकियों के बीच बोल रही थीं।- इतना सम्पन्न घर, इतना सुदर्शन पति के मिलने पर अपने रूप पर इतराती हुई मैं इसी कमरे में इसी पलंग पर बैठी इनका इंतजार कर रही थी। ये आये और सिर्फ इतना कहा, ‘सो जाओ, थक गयी होगी।’ मैं अबोध अपने पति के संयम पे मुग्ध हो गयी थी। दो रातें इसी तरह गुजर गयीं। घर के मेहमान चले गये और तुम्हारे पिता स्टडी में सोने लगे। मैं हैरान, परेशान। सारी रात जाग कर इनका इंतजार करती। क्या पता ये आयें और मुझे सोती हुई देख कर लौट ना जायें। लेकिन ये नहीं आये। मैं पूछूँ भी तो किससे पूछूँ और क्या पूछूँ। इसी बीच मेरे पापा मुझे लेने आये तो तुम्हारे दादा-दादी ने मुझे भेजने से मना कर दिया, ‘आपके यहाँ तो तीन बेटीयाँ हैं, मेरे यहाँ तो यही बेटी है यही बहू है। रहने दीजिये यहीं, कोई तकलीफ तो नहीं है।’ तकलीफ तो सचमुच कुछ नहीं थी। गहने, कपड़ों से देह फटी पड़ रही थी, और जो नही था वह मैं पापा से क्या कहती। इसी तरह महीना भर गुजर गया। आखिर मैं एक रात हिम्मत कर उनके कमरे में पहुँची। क्या-क्या कहा था अब याद नहीं, हाँ इतना याद है कि इन्होंने कहा था ये शादी नहीं करना चाहते थे लेकिन माँ-बाप की इकलौती संतान होने के कारण इन्हें शादी करनी पड़ी। उन्हें वंश चाहिये था। मैंने हैरान होकर पूछा था कि अगर आप मुझे छुएंगे ही नहीं तो उन्हें वंश मिलेगा कैसे? इन्होंने कोई उत्तर ना देकर मुँह फेर लिया था। मुझे लगा कि शायद मैं इनके योग्य नहीं इसलिये ये ऐसा कर रहे हैं। मैंने रोते-रोते कहा था, एक बार मुझे देख तो लीजिये, मैं सिर्फ चेहरे से ही नहीं, पूरी देह से सुन्दर हूँ, और मैं अपनी साड़ी खीचने लगी थी जब तुम्हारी दादी ने आकर मेरा हाथ पकड़ लिया था और ‘अपने कमरे में चलो’’ कह कर मुझे वहाँ से ले गयीं थीं। उसके कुछ दिन के बाद तुम्हारे दादा-दादी गाँव चले गयी थे। -     वे अचानक रुक गयीं और मेरी ओर से दृष्टि हटा कर दूसरी तरफ देखने लगीं थीं। आँसू की सूखी हुई लकीरों के बीच उनका चेहरा बेहद कातर हो आया था। कितने सारे भाव उनके चेहरे पर से गुजर गये- दुःख, घृणा, लज्जा, विवशता। मुझे उनकी कहानी के आगे का हिस्सा समझ में आ रहा था लेकिन मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि उन्हें बोलने दूँ या रोक दूँ। मैं हत् बुद्धी सा बस उन्हें देखता रहा था। उन्होंने अपना झुका सिर उठा कर मुझे देखा था, फिर बोलीं थीं –बंटी, जो कुछ मैं कह रही हूँ वह कोई मां अपने बेटे से नहीं कह सकती, लेकिन मैं कह रही हूँ, इस उम्मीद में कि शायद तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल सके।- उन्होंने रुक कर लम्बी साँस ली थी –तुम्हारे पिता के बहुत सारे छात्र घर में आते रहते थे। उन्हीं में सत्येन्द्र पाठक भी थे। धीरे-धीरे सत्येन्द्र के आने पर या तो तुम्हारे पिता को थोड़ी देर के लिए कहीं जाना पड़ जाता था, या फिर उन्हें आने में देर होती रहती थी और सत्येन्द्र यहाँ बैठ कर उनका इंतजार करते रहते। और इस तरह सब कुछ समझते हुए भी मैं घरवालों के षड्यंत्र की बलि चढ़ गयी। लेकिन हम सच में प्यार करने लगे थे। मैं उनके साथ भाग जाना चाहती थी लेकिन वो कोई नौकरी नहीं करते थे और हमारी जाति भी अलग थी, सो कोई रास्ता नहीं था।- उन्होंने रुक कर फिर साँस ली थी। मैं देख रहा था, उनके लिये अब एक-एक शब्द बोलना कठिन हो रहा था, लेकिन वो बोलती रहीं थीं –जब तुम मेरे पेट में आ गये, तो तुम्हारे दादा-दादी लौट आये, और फिर मेरी सोनोग्राफी करवाई गयी। जब यह मालूम हो गया कि पेट में लड़का है तो सत्येन्द्र का आना बन्द कर दिया गया। तुम्हारे डी.आई.जी. दादा ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर वे इस शहर में भी देखे गये तो उनका वह हाल किया जायेगा कि उनके परिवार वाले भी उनकी लाश नहीं पहचान पायेंगे। सत्येन्द्र क्या करते। उसके पास कोई उपाय नहीं था। वे चले गये।- वे अब हाँफने लगीं थीं –तुम्हारे जन्म के बाद मैंने अपने भाग्य से समझौता कर लिया था लेकिन जब तुम स्कूल जाने लगे तो खाली वक्त मुझे डराने लगा। मुझे हिस्टिरिया के दौरे पड़ने लगे। मुझे पूजा-पाठ में मन लगाने को कहा गया। ये लोग मुझे कहीं नहीं जाने देते थे। तुम्हारे पिता ने इतना एहसान किया, ओपेन युनिवर्सिटी से मेरी आगे की पढ़ाई शुरू करवा दी। मैं डूब गयी, अपनी किताबों में, पूजा-पाठ में, घर के काम काज में। अपने भाग्य को स्वीकार कर लिया था मैंने। लेकिन मेरा दुर्भाग्य देखो बंटी कि जब मुझे इस जीवन की आदत पड़ गयी थी तो एक बार फिर सत्येन्द्र आ गये और सब कुछ उथल-पुथल हो गया। - वो फिर सिसकने लगीं थीं। -काश उन्होंने तुम्हें पहचाना नहीं होता। पहचाना भी था तो स्वीकार नहीं किया होता। लेकिन मैं जानती हूँ वो अपने आप को रोक नहीं पाये। वे मेरे विषय में जानना चाहते थे। काश!,उन्होंने ऐसा नहीं किया होता।- उनकी सिसकियाँ तेज रूलाई में बदल गयी थीं। वे तकिये पर गिर गयीं थीं।
      अब मैं इस अन्धेरे कमरे में बैठा अपनी माँ के जीवन के काले रंगों की परतें उधेड़ रहा था। उन काले रंगों को अपने शरीर पर चिपकता महसूस कर रहा था। ये भी महसूस कर रहा था कि कल सुबह ये सारे काले धब्बे एक प्रश्न चिह्न के रूप में मेरे सामने खड़े होंगे। -‘क्या उत्तर है मेरे पास? क्या फर्क पड़ गया यह जानने से कि मेरे जैविक पिता श्रीकांत धर नहीं सत्येन्द्र पाठक हैं? श्रीकांत धर ने ना चाहते हुए भी मुझे अपना बेटा कहा है और सत्येन्द्र पाठक चाहते हुए भी मुझे अपना बेटा नहीं कह सकते।’- मुझे मिस्टर पाठक की आँखों की वह कोमलता याद आ गयी। याद आया कि एक जटिल प्रोग्राम को मेरे बहुत जल्दी बना देने पर बाहर से आये अधिकारियों ने मेरी प्रशंसा की थी तो मैंने उनके चेहरे पर गर्व का भाव देखा था, जो शायद अनजाने में उनके चेहरे पर आ गया था। वह गर्व, वह कोमलता मैंने उस आदमी के चेहरे पर कभी नहीं देखी थी जिसे मैं पापा कहता आया था। बचपन से लेकर आज तक मेरी किसी सफलता-असफलता पर उनके चेहरे पर हमेशा एक तट्स्थ भाव रहा जिसे मैंने उनकी प्रकृति मान लिया था। इस परिवार को मेरी आवश्यक्ता थी और बदले में इन्होंने मेरी हर आवश्यक्ता को पूरा किया। अब इतने सालों बाद यह जान कर कि क्यों मैं इनके व्यव्हार में एक दूरी महसूस करता रहा, क्या बदल जायेगा? जिस तरह मैं इनकी आवश्यकता और विवशता हूँ, इसी तरह मैं चाहूँ या ना चाहूँ ये लोग भी मेरी विवशता हैं। किसी तरह का अस्वीकार एक तमाशे से अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। मुझे तमाम उम्र इन लोगों को उसी तरह अपना कहना होगा जैसे आज तक ये कहते आये हैं। -मेरे सीने में एक लम्बी साँस उमड़ आयी। इन तमाम तर्कों के बावजूद मैं अपने अन्दर उमड़ती घृणा को महसूस कर रहा था। मैं महसूस कर रहा था कि कल की सुबह मैं इन लोगों के साथ जीना नहीं चाहता। कल इन सबों की आँखों में मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा होगी। क्या करूँ मैं? सुबह किसी के उठने से पहले चला जाऊँ कहीं? लेकिन मैं ऐसा क्यों करूँ? मैं अपनी मर्जी से नहीं, इनकी मर्जी से हूँ यहाँ। जो सच मैनें आज जाना है, उस सच को तो ये सभी शुरू से जान रहे थे। फर्क बस इतना पड़ा है के कल तक मैं इनके लिए पराया था, आज ये मेरे लिए भी पराये हो गये। इतने पराये कि मुझे इन्हें देखने तक की इच्छा नहीं हो रही थी। एक झटके में सब कुछ बदल गया।  और मेरे मन में अचानक माँ का ख्याल आ गया। कैसे जिया उन्होनें इतने साल इन लोगों के साथ?  जिस घृणा को मैं पल भर नहीं झेलना चाह रहा, उस घृणा के साथ वो तमाम उम्र जीती रहीं। जिन्दगी गुज़र गयी उनकी अपना जीवन बरबाद करने वालों को अपना कहते हुए। -मेरे मन में माँ के लिए दु:ख, करूणा, स्नेह, सब एक साथ उमड़ने लगे। एकदम से जी चाहा, दौड़ कर जाऊँ और उन्हें अपनी बाहों में छुपा लूँ। कुछ ऐसा करूँ कि वो अपने जीवन की सारी त्रासदी भूल जायें। नहीं, इस त्रासदी को मैं उन्हें नहीं भुला सकता। मैं ही तो कारण हूँ उनकी इस त्रासद स्थिति था। लेकिन ना वो मुझे छोड़ सकती हैं और ना ही मैं उन्हें छोड़ सकता हूँ। फिर मैं क्या करूँ उनके लिये। लेकर चला जाऊँ उन्हें कहीं? हाँ। हाँ, मैं उन्हें लेकर चला जाऊँगा। किसी दूसरे शहर, या नहीं तो इसी शहर में किसी दूसरे छोर पर। इन कसाइओं की छाया भी नहीं पड़ने दूँगा मैं अब उन पर। कुछ तो सुकुन से गुज़ार सकेंगी वो अपनी बाकि जिन्दगी। - मेरी इच्छा हुई कि अभी जाऊँ उनके कमरे में और उन्हें उठा कर कहूँ- माँ, चलिये, अभी चलते हैं हमलोग यहाँ से। अब इस घर से हमारा कोई लेना देना नहीं। -मैं कल्पना में उनके मुरझाए चेहरे पर आश्चर्य और खुशी के भावों को देखने लगा। मैं कल की सुबह से डर रहा था अब मुझे रात लम्बी लग रही थी। कल सुबह मुझे माँ को बताना था कि मैं जितनी जल्दी हो सके उन्हें यहाँ से ले जाऊँगा। मुझे उन्हें खुश देखना था। रात बीतने की प्रतीक्षा में मैं बिस्तर पर लेट कर मन की उत्तेजना को शांत करने की चेष्टा करने लगा। अपनी कल्पना में मैं एक छोटे से घर में इधर-उधर डोलती माँ को देखने लगा। मुझे ऑफिस भेजती माँ, मेरे लौटने का इंतजार करती माँ। कितना खुश रहेंगे हमदोनों। फिर मैं उनके लिए बहू ला दूँगा। माँ को अकेलेपन की भी शिकायत नहीं रहेगी। -और मेरी कल्पनाएँ अचानक ठिठक गयीं। -अकेलापन, क्या इस तरह से दूर हो जायेगा माँ का अकेलापन? मेरे जीवन में अपने आप को व्यस्त रख कर? क्या यही पुरस्कार होगा उनके अब तक के सघर्ष का?  एक व्यक्ति की सेवाओं से मुक्त होकर दूसरे व्यक्ति की सेवा में जीवन व्यतीत करना? क्या उनका अपना कोई जीवन नहीं होना चाहिये? क्या इस तरह उन्हें वह सब मिल जायेगा वो उनसे छिन गया?,-  मैं अपने विचारों की मुड़ती दिशा से घबरा कर उठ बैठा। -‘यह मैं उनके किस छिन चुके की बात सोच रहा हूँ? क्या सत्येन्द्र पाठक? –मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी धुंध में घिर गया। अब तक का सारा साफ-साफ रास्ता जाने कहाँ विलीन हो गया। - अब क्या करूँ मैं? मैं इसके सिवा और कर क्या सकता हूँ?  एक उम्र के बाद तो ऐसे भी सभी स्त्रियाँ ऐसे ही जीती हैं। -लेकिन मुझे पता था, यह तर्क खोखला है। एक उम्र के बाद ऐसा जीवन जीने वाली स्त्रियों का पिछला जीवन भरा-पूरा रहता है। पति, गृहस्थी, बच्चे। माँ ने क्या जिया? उपेक्षा, प्रताड़ना, अकेलापन? –मैं उत्तेजना में उठ कर टहलने लगा। -कोई रास्ता तो ढूंढना ही होगा। काश सत्येन्द्र पाठक ने शादी नहीं की होती। लेकिन अब? अब क्या? कोई दूसरा...? –मैं सहम कर रुक गया। क्या माँ इसे स्वीकार करेंगी? क्या मैं माँ को किसी और से साथ स्वीकार कर सकूँगा? –मैं अपने अन्दर उठ रहे अस्वीकार को सुन रहा था। सत्येन्द्र अगर अविवाहित होते तो शायद... लेकिन कोई और? नहीं, माँ इसके लिए कभी तैयार नहीं होंगी। -मैंने अपने आप को आश्वस्त करना चाहा, लेकिन उस अन्धेरे कमरे में मैं अपने मन में छुपे उस सच को देख सकता था जो संस्कारों के रूप में मेरे सामने खड़ा था। -पिता की जिस जगह पर मुझे श्रीकांत धर को देखने का अभ्यास हो चुका था उस जगह पर किसी और को देखने की इच्छा मुझे नहीं थी। मुझे इस जीवन का अभ्यास हो चुका था और इसकी कीमत पर कोई नया जीवन, कोई नयी व्यवस्था को स्वीकारने का साहस मेरे अन्दर नहीं था। -तो क्या मां को तमाम उम्र इसी तरह जीना होगा? एक कठपुतली की तरह? हर बार कोई और निर्धारित करेगा उनकी दिशायें? नहीं! मुझे उन्हें मुक्त करना होगा। स्वतंत्र करना होगा उन्हें उनके खुद के फैसलों के लिये। हो सकता है उन्हें उनके खुद के फैसलों के लिये उनका अभ्यास खत्म हो चुका हो। मैं जगाऊँगा उनका आत्मविश्वास। समझाऊँगा उन्हें कि तैंतालिस-चौआलिस की उम्र में जिन्दगी खत्म नहीं हो जाती। फिर से शुरू की जा सकती है यह। कि वो फिर से शादी कर के एक नया जीवन शुरू कर सकतीं हैं। इस बार अपने मन का। माँ इसके लिए तैयार नहीं होंगी। लेकिन अगर मुझे उन्हें न्याय दिलाना है तो मुझे इसके लिए प्रयत्न करने होंगे। शायद एक नौकरी उनके जीवन की दिशा बदल सके। वो आत्म्विश्वास दे सके उन्हें कि वो ऐसा फैसला कर सकें जो भर दे उनका खालीपन। मगर इसके लिए मुझे पापा से बात करनी होगी। उनसे कहना होगा कि उन्हें जो चाहिए था वो उन्हें मिल चुका है। अब वो मुक्त कर दें माँ को। जीने दें उन्हें अपनी जिन्दगी। शायद यही प्रायश्चित भी होगा उनका माँ पर किये अत्याचारों का। -मैं अपने कमरे से बाहर निकल आया। सुबह होने लगी थी लेकिन पापा की स्टडी में लाइट अब भी जल रही थी। शायद उन्हें पता था, मैं आऊँगा।